सृष्टि के आरंभ में शनि को बहुत ही दीन हीन और उपेक्षित ग्रह माना जाता था. नवग्रह परिवार में शनि को नौकर का स्थान मिला था. पुरातन काल में सभी लोग सूर्य की पूजा उपासना करते थे. सूर्य पुत्र होने के बावजूद भी शनि को कोई भी ख्याति और सम्मान प्राप्त नहीं था. शनि अपने अपमान से बहुत दुखी रहते थे इसीलिए एक दिन अपने अपमान से दुखी होकर शनि ने शिव की कठोर तपस्या करना प्रारंभ किया. शनि की कठोर और कर्तव्यनिष्ठ भक्ति से भोलेनाथ बहुत प्रसन्न हुए और उन्हें दर्शन देकर यशस्वी होने का वरदान दिया. शिव की तपस्या और भक्ति करने के कारण आज संसार में शनि के प्रति लोगों की भक्ति और आस्था तेजी से बढ़ती जा रही है. आज के समय में सबसे ज्यादा पूजा शनिदेव की की जाती है.
- शिव का शनि से सम्बन्ध :- शिव को शनि अत्यंत प्रिय है. इसलिए उन्हें शिव प्रिय भी कहा जाता है. शनि ग्रह की आकृति भी शिवलिंग की तरह दिखाई देती है.
- शास्त्रों के अनुसार किसी भी उपासक में उपास्य के गुण अवश्य दिखाई देते हैं. सभी ग्रह कर्मों के अनुसार शुभ अशुभ फल प्रदान करते हैं, पर भगवान शिव ने शनिदेव को विशेष रूप से मनुष्य द्वारा किये गए संचित पाप कर्मों का फल प्रदान करने का विशेष अधिकार प्रदान किया है. इसलिए शनिदेव को दंडाधिकारी भी कहा जाता है.
- ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि तमोगुण की प्रधानता वाले क्रूर और दुख प्रदाता ग्रह हैं और सभी मनुष्यों को त्रास देने में सक्षम हैं. इसी कारण उन्हें दुर्भाग्य देने वाला शैतान ग्रह भी माना जाता है. परंतु शनिदेव शैतान नहीं बल्कि एक देवता है.
- मनुष्य के दुख का कारण तो उसके अपने द्वारा किये गए कर्म होते हैं. शनि एक निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह बुरे कर्मों के को ध्यान में रखकर मनुष्य के लिए वर्तमान जन्म में दंड निर्धारित करते हैं.
- शनि देव मनुष्य को पिछले जन्म के अशुभ कर्मों का दंड देने के लिए मात्र एक साधन है. मनुष्य को अपने कर्मों की ही सजा मिलती है.
- शनि द्वारा पीड़ित मनुष्य को शिव शंभू के महामृत्युंजय का जाप करने से मुक्ति मिलती है.
- साढ़ेसाती का वैज्ञानिक स्वरूप :- जिस तरह हर ग्रह गोचरवश जन्मस्थ चंद्र से सापेक्ष स्थिति के कारण अपना अपना फल प्रदान करता है, उसी तरह शनि भी गोचर भ्रमण करते हुए जन्मस्थ चंद्र के सापेक्ष अपना शुभ फल प्रदान करते हैं.
- यदि कुंडली में तीसरे, छठे या ग्यारहवें स्थान में शनि मौजूद हो तो वह शुभ फल प्रदान करने वाला होता है, पर अगर चंद्र राशि से वारवे, पहले या दूसरे स्थान पर शनि मौजूद होते हैं तो सारे 7 वर्ष का काल शनि की साढ़ेसाती के नाम से जाना जाता है.
- नक्षत्र दशा और दिन दशा के अलावा शनि की गोचर दशा को भी ज्योतिष शास्त्र में महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है. इस गोचर दशा को ही शनि की साढ़ेसाती कहा जाता है.
- साढ़ेसाती और ढैय्या दशा कालांश में शनि जन्म कुंडली में अपनी स्थिति दृष्टि तथा युति व्यक्ति को देते हैं. यदि मनुष्य के समय जन्म कालीन चंद्र अपने शत्रु ग्रह शनि से युत होता है तो साढ़ेसाती की दशा लगती है.
- यह ग्रहण नामक एक अशुभ योग होता है. चंद्र एक सौम्य ग्रह माना जाता है. चंद्र के ऊपर शनि ग्रह की छाया पड़ना दोषपूर्ण माना जाता है. इसलिए जन्मस्थ चंद्र से गोचर शनि की युति साढ़ेसाती का सबसे मुख्य कारण होती है.
- साढ़ेसाती का शुभ फल :- गोचर का शनि केवल 3 राशियों वृषभ, तुला और कुंभ में ही शुभ फल प्रदान करता है. बाकी बची हुई 9 राशियों में शनि अशुभ फल देने वाला होता है.
- वृषभ, तुला, मकर या कुंभ राशि के लोगों को साढ़ेसाती ज्यादा अशुभ फल प्रदान नहीं करती है. जन्म काल में अगर शनि शुभ हो तो साढ़ेसाती कल्याणकारी होती है.
- कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु राशि के लोगों के लिए साढ़ेसाती बहुत ज्यादा कष्टदायक होती है. मिथुन और कन्या राशि वालों वाले लोगों के लिए साढ़ेसाती मध्यम फल देने वाली होती है.
- वृषभ और तुला लग्न में शनि शुभ भावेश होने की वजह से अकेला ही योग कारक होता है. इसीलिए वृषभ या तुला लग्न वाले लोगों को शनि के अशुभ गोचर का फल अधिक शुभ और अशुभ गोचर का फल कम मिलता है