सूर्य जब एक राशि से दूसरी राशि में परिवर्तन करता है तब उसे सूर्य संक्रांति कहते हैं और जिस माह यह संक्रांति नहीं होती तो उस माह को मलमास या अधिकमास या पुरुषोत्तम मास कहते हैं। अगर हम खगोलीय दृष्टिकोण से देखें तो सौरमास तथा चांद्रमास का संतुलन बनाए रखने के लिए हर 32 महीने और 16 दिन के पश्चात अधिकमास होता है। अधिक मतलब 12 महीनों में एक महीना अधिक होना और मलमास अर्थात जो मलिन है, जो खराब है। कुछ पंचांगकारों का मानना है कि पूरे साल हर किसी ना किसी तिथि का क्षय होता रहता है और इन तिथियों के क्षय को संतुलित करने के लिए हर तीसरे साल एक माह अतिरिक्त बना दिया जाता है जिसे मलमास या अधिकमास कहा जाता है।
अगर सौरमास और चांद्रमास का संतुलन स्थापित ना किया जाए या क्षय तिथियों को संतुलित ना किया जाए तो हमारे त्यौहार ही गड़बड़ा जाएंगे जैसे मुस्लिम लोगों की ईद का हाल होता है। अगर हम संतुलन ना करें तो दीवाली गर्मी के मौसम तक पहुंच जाएगी लेकिन हमारे पंचांगकार इस संतुलन को बनाए रखते हैं और हम अपने त्यौहार सही समय पर मनाते हैं।
धार्मिक दृष्टि से मलमास का महत्व :-
वैसे तो जो मलिन होता है उसका अपना को ई अस्तित्त्व होता ही नहीं है लेकिन इस मास का अस्तित्व बनाने वाले कोई और नहीं स्वयं श्रीकृष्ण भगवान हैं क्योंकि इस माह का कोई देवता नहीं था तो श्रीहरि विष्णु जी के पास जब मलमास दुखी होकर पहुंचा तो वह उसे श्रीकृष्ण के गोलोक में ले गए। यहाँ श्रीकृष्ण भगवान ने मलमास को दुखी होने से मना किया और कहा कि मैं तुम्हारा देवता हूँ और मैंने तुम्हें अपना नाम दिया है तो इस संसार के लोग मलमास आने पर पूजा-अर्चना करेगें।
इस मास के आने पर लोग दान, जाप, पवित्र नदियों में स्नान, व्रत और विष्णु व कृष्ण जी की पूजा करते हैं। पूरे माह विष्णु पूजा का विधान है और शिव पूजा का महत्व भी इस माह में माना गया है। इस माह में की गई तीर्थ यात्रा भी व्यक्ति को शुभफल प्रदान करने वाली होती है।
पूजा-पाठ व स्नान पर ज्यादा जोर दिया गया है लेकिन किसी भी प्रकार के धार्मिक अनुष्ठान, विवाह, मुंडन, प्रतिष्ठा, गृह प्रवेश आदि शुभ कर्म करना इस माह में वर्जित व अशुभ माने गए हैं।
इस माह में हरिवंशपुराण, विष्णु स्तोत्र, रामायण, श्रीमद् भागवत, श्रीराम की आराधना, विष्णु जी की पूजा, श्रीकृष्ण जी की पूजा करने का विधान है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति अपनी श्रद्धा से जो पाठ करना चाहे कर सकता है। मलमास में करने का एक विशेष मंत्र ही कई स्थानों पर दिया गया है जिसकी एक माला प्रतिदिन मलमास में करनी चाहिए। मंत्र है :-
“गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरूपिणम्। गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दं गोपिकाप्रियम्।।”
जो लोग पूरे माह इस “माह” का नियम पालन करते हैं तो उन्हें जमीन पर सोना चाहिए। अगर कोई जमीन पर नहीं सो पाता तो एक गद्दा या दरी जमीन पर बिछाकर सो सकता है। अधिकमास का नियम करने वाले को एक ही समय भोजन करना चाहिए और यदि कोई एक समय के भोजन पर नहीं रह पाता तो उसे सादा भोजन तो अवश्य ही करना चाहिए। मांस, मदिरा तथा मांसाहारी भोजन का पूरी तरह से त्याग कर देना चाहिए।
मलमास का उद्धार श्रीकृष्ण के गोलोक में हुआ था तो इस माह में गौओं की सेवा करनी चाहिए। हरा चारा, गुड़, चना आदि उन्हें खिलाना चाहिए।
अन्य मासों की तरह ही इस मास में भी दो एकादशियाँ आती है जिन्हें पद्मा और परमा एकादशी के नाम से जाना जाता है।
जो व्यक्ति पूरे माह अधिकमास का नियम-पालन करता है तब मास के अंत में ब्राह्मणों को अपनी सामर्थ्यानुसार भोजन जरुर कराना चाहिए और यथाशक्ति उन्हें दान-दक्षिणा देकर विदा करना चाहिए। ब्राह्मण भोजन में खीर व मालपुए का विशेष महत्व माना गया है।
मलमास अथवा अधिकमास कब होता है?
मलमास अथवा अधिकमास कैसे बनता है इसका उल्लेख तो हमने ऊपर कर दिया है लेकिन इस माह के बनने में कुछ विशेष माह ही होते हैं जैसे चैत्र माह से आश्विन माह तक ही ये अधिकमास बनता है (चैत्र और आश्विन माह चांद्र मास हैं)। जैसे अधिकमास बनता है वैसे ही क्षय मास ही होता है इसमें साल में 12 की बजाय 11 माह ही होते हैं, एक माह का क्षय हो जाता है। कार्तिक, मार्गशीर्ष(मंगसिर) या अगहन और पौष माह में क्षयमास होता है। माघ और फाल्गुन ऎसे चांद्र मास हैं जिनमें ना तो अधिकमास होता है और ना ही क्षयमास ही होता है।