अस्तेय व्रत का अर्थ है चोरी ना करना. यह जीवन का सबसे महत्वपूर्ण व्रत माना जाता है. इस व्रत की शुरुआत व्यक्ति कभी भी किसी भी समय कर सकता है. अस्तेय व्रत करने के लिए मनुष्य को अपनी इंद्रियों पर संयम रखते हुए भगवान विष्णु के समक्ष संकल्प लेना पड़ता है कि “परमात्मा मैं आज से अस्तेय व्रत की शुरुआत कर रहा हूं, मैं अपने पूरे जीवन इस व्रत का पालन करूंगा. विशेष संकट की परिस्थितियों में भी मैं अस्तेय व्रत का पालन करना नहीं छोडूंगा” मन में ऐसे शुभ विचार आते ही भगवान विष्णु की कृपा मिलने लगती है.
अस्तेय व्रत का महत्व :-
- अस्तेय व्रत का पालन करने से जीवन का प्रवाह गलत रास्ते से सही रास्ते पर आ जाता है. इस व्रत को करने से मनुष्य अंधकार से प्रकाश की ओर अविद्या से विद्या की ओर आगे बढ़ता है.
- जो भी मनुष्य अस्तेय व्रत का पालन करता है वह बुराइयों पर विजय प्राप्त कर अच्छाइयों की ओर बढ़ता है और उसे धर्म अर्थ काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थओं की प्राप्ति होती है.
- अस्तेय व्रत का दृढ़ता से पालन करने पर मनुष्य सांसारिक सुखों को भोग कर मृत्यु के पश्चात वैकुंठ लोक को प्राप्त करता है. मनुस्मृति में अस्तेय व्रत के बारे में विस्तृत विवरण दिया गया है.
अस्तेय व्रत से जुड़ी खास बातें :-
- जब सुदामा ने देवकीनंदन भगवान श्री कृष्ण के साथ मिलकर चनो की चोरी की थी तो उस चोरी के पाप के परिणाम स्वरूप सुदामा को पूरी जीवन दरिद्रता का प्रकोप झेलना पड़ा था.
- आप ही सोचें कि अगर एक छोटी सी चोरी का का परिणाम इतना खतरनाक हो सकता है तो व्यक्ति सुबह से लेकर शाम तक शाम से लेकर सुबह तक घर, बाजार, सेवा कर्म, प्रतिष्ठान आदि में रहते हुए न जाने कितनी प्रकार की और किस-किस तरह की चोरी करता है.
- इन चोरियों के दुष्परिणाम के बारे में कभी कोई नहीं सोचता है. इसलिए मनुष्य को अस्तेय व्रत अर्थात चोरी ना करने का पालन जरूर करना चाहिए.
- हमें अपने बच्चों को भी अस्तेय व्रत का पालन करना सिखाना चाहिए.
अस्तेय व्रत कथा :-
ऋषि शंख और ऋषि लिखित धर्म का पालन करते थे. इन दोनों ने ही इस व्रत का पालन करने का व्रत लिया था. जो भी मनुष्य धर्म का पालन करता है उसे भगवान प्राप्त होते हैं, और जो भी व्यक्ति ईश्वर को पा लेता है वह सांसारिक मोह माया से मुक्ति प्राप्त करता है और पुनर्जन्म नहीं लेता है. जो लोग धर्म का ध्यान नहीं रखते हैं वह जन्म मृत्यु रूपी संसार चक्र में फंसे रहते हैं. ऋषि शंख और लिखित पूरी श्रद्धा से अस्तेय व्रत का पालन करते थे. एक बार लिखित अपने बड़े भाई ऋषि शंख के आश्रम पधारे. वहां पर उनकी मुलाकात शंख और उनकी पत्नी से नहीं हुई. ऋषि लिखित को बहुत भूख लगी थी. जिसकी वजह से उन्होंने अपने भाई के बगीचे से एक फल तोड़कर खा लिया. उसी समय ऋषि शंख वहां आ गए और उन्होंने ऋषि लिखित को फल खाते हुए देखा. ऋषि शंख ने अपने छोटे भाई लिखित को अपने पास बुलाया और बोले भ्राता लिखित तुम मेरे आश्रम में आए और तुमने मेरे बगीचे को अपना बगीचा समझ कर उससे फल तोड़कर खा लिया इस बात से मेरा मन बहुत प्रसन्न हुआ, परंतु जिस अस्तेय व्रत का धर्म का पालन करने का व्रत हमने लिया है उसका पालन करने से तुम विमुख हो गए. इसलिए तुम्हें इस बात की सजा झेलनी पड़ेगी.
तब ऋषि लिखित ने अपने बड़े भाई शंख से कहा भ्राता श्री आप जो चाहे दंड दे, मैं वह दंड भोगने के लिए तैयार हूं. ऋषि शंख ने कहा मैं दंड देने वाला नहीं हूं. दंड देने का अधिकार यहां के राजा को प्राप्त है. अतः तुम उनके पास जाओ और अपनी चोरी का दंड प्राप्त करो और चोरी के अपराध से मुक्त हो जाओ. अपने भाई की बात सुनकर ऋषि लिखित राजा के पास गए और उन्होंने पूरी कथा सुनाई. तब राजा बोले जिस तरह राजा को दंड देने का अधिकार होता है उसी तरह राजा को क्षमा करने का अधिकार भी है. ऋषि लिखित में उन्हें आगे कहने से रोका और बोले हे राजन आप कृपया दंड विधान का पालन करें चोरी का जो भी दंड ब्राह्मणों के लिए निश्चित किया गया है उसका पालन करें. ऋषि लिखित की बात सुनकर राजा ने ऋषि के दोनों हाथों की कलाई कटवा दी. तब ऋषि लिखित अपनी कटे हुए हाथ लेकर बड़े भाई शंख के पास वापस आए और उन से प्रसन्न होकर कहने लगे भैया मैं राजा से दंड लेकर आया हूं. देखो मैंने आपकी अनुपस्थिति में आपके बगीचे का फल तोड़कर खाया था उसके दंड स्वरूप राजा ने मेरे दोनों हाथ कटवा दिए. अब तो आप खुश हैं. शंख ने उत्तर दिया हां अब मैं प्रसन्न हूं क्योंकि तुम चोरी के अपराध से मुक्त हो गए हो. आओ पुण्य सरिता नदी में स्नान करके संध्या पूजा आरंभ करें.
ऋषि लिखित अपने भाई शंख के साथ नदी में स्नान करने गए. जैसे ही उन्होंने तर्पण करने के लिए अपने दोनों हाथ जल में डाले उनके हाथ पहले जैसे हो गए. ऋषि लिखित का अस्तेय व्रत कभी भी खंडित नहीं हुआ था. वह चाहते थे कि उनके भाई लिखित के दोनों हाथ पहले जैसे हो जाए. अपने हाथों को ठीक होता देखकर ऋषि लिखित ने कहा भ्राता श्री अगर यही करना था तो आपने मुझे दंड के लिए राजा के पास क्यों भेजा. तब ऋषि शंख ने उत्तर दिया किसी भी अपराध का दंड राजा दे सकता है. किंतु धर्म का पालन करने वाले समस्त ब्राह्मण को उसे क्षमा करने का अधिकार भी प्राप्त है. इसलिए मैंने तुम्हें क्षमा कर दिया. जिसके कारण तुम्हारे हाथ फिर से पहले जैसे हो गए. अब तुम अस्तेय व्रत का पालन करते हुए नियमित रूप से गंगा स्नान करना. ऐसा करने से तुम्हे स्वर्ग लोक प्राप्त होगा. महर्षि लिखित में अपने द्वारा लिखित ग्रंथ में पतित पावनी गंगा के महानता के बारे में भी विस्तृत वर्णन किया है. ऋषि लिखित में लिखा है कि जब तक किसी व्यक्ति की अस्थियां पतित पावनि गंगा जी में विराजमान रहती हैं उतने हजार वर्षों तक उस व्यक्ति को स्वर्ग लोक प्राप्त होता है.