वैसे तो पंचांग का अर्थ पाँच अंगों से हैं – जिसमें तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण आते हैं लेकिन पांच बातों के अलावा अन्य बहुत सी बातें हैं जो पंचांग के अन्तर्गत आती हैं। जैसे समय-समय पर आकाशीय अथवा खगोलीय बातों की गणना का जो पूरा ब्यौरा देता है वो भी पंचांग के अन्तर्गत आता है। राशि, ग्रह, नक्षत्र आदि की स्थिति का ब्यौरा भी इसी के अन्तर्गत आता है। हर प्रकार का मूहूर्त पंचांग से देखा जाता है। इन सभी के अलावा जो बातें पंचांग के अन्तर्गत आती हैं वो इस प्रकार से हैं :-
मास अथवा माह : – हिन्दु पद्धति में जिस मास अथवा माह की बात हम करते हैं वो “चान्द्र मास” तथा “सौर मास” कहे जाते हैं। जो चंद्र की गति पर आधारित होता है वो “चान्द्र मास” कहलाता है। चंद्रमा पृथ्वी का एक चक्कर पूरा करता है तो वह समय चांद्र मास हो गया। सरल भाषा में कहें तो एक पूर्णिमा से दूसरी पूर्णिमा तक का समय अथवा कृष्ण प्रतिपदा से शुक्ल पूर्णिमा तक का समय चांद्र मास कहा जाता है।
चांद्र मास भी दो प्रकार से होते हैं :-
- पूर्णिमा तक
- दूसरा अमावस्या तक।
चंद्रमा को अश्विनी नक्षत्र से रेवती नक्षत्र तक जाने में जो समय लगता है उस समयावधि को “नक्षत्र मास” कहते हैं सावन दिनों को मिलाकर एक सावन मास बनता हैं।
एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति तक का जो समय होता है अर्थात सूर्य जब एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है उस समयावधि को “सौर मास” कहते हैं। सौर मास की अवधि 30 अथवा 31 दिन हो सकती है।
हिन्दू कैलेण्डर के अनुसार बारह हिन्दू मास :- चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, सावन, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन।
अयन से ऋतुओं का संबंध:- जब सूर्य मकर राशि से मिथुन राशि तक गोचर करते हैं तब कहा जाता है कि सूर्य को “उत्तरायण” कहा जाता है और जब सूर्य कर्क राशि से धनु राशि तक गोचर करते हैं तब सूर्य को “दक्षिणायन” कहा जाता है। जो हिन्दु ऋतुएं हैं उनका संबंध अयन से है। शिशिर (शीत) ऋतु, बसन्त ऋतु और ग्रीष्म ऋतु उत्तरायण काल में होती हैं। इस उत्तरायण समय को देवताओं का दिन कहा गया है। वर्षा ऋतु, शरद ऋतु तथा हेमन्त ऋतु दक्षिणायन काल में होती हैं और इस समय को देवताओं की रात्रि कहा गया है।
हिन्दु ज्योतिष के अनुसार “षोडश संस्कारों” के लिए उत्तरायण काल को शुभ माना गया है। उपरोक्त जिन ऋतुओं का वर्णन किया गया है वो सूर्य के सायन गोचर में प्रत्येक दो राशियों में निम्न प्रकार से घटित होती हैं :-
- सूर्य जब मकर और कुंभ राशि में होता है तब शिशिर अथवा शीत ऋतु होती है।
- मीन और मेष में जब सूर्य रहता है तब बसन्त ऋतु होती है।
- वृष और मिथुन जब सूर्य का गोचर होता है तब ग्रीष्म ऋतु होती है।
- कर्क और सिंह में जब सूर्य रहता है तब वर्षा ऋतु होती है।
- कन्या और तुला में सूर्य के गोचर होने से शरद ऋतु रहती है।
- वृश्चिक और धनु राशि में सूर्य के होने पर हेमन्त ऋतु रहती है।
मलमास तथा क्षयमास: – जिस माह में कोई संक्रांति ना हो उसे “मलमास” अथवा “अधिकमास” कहते हैं और जिस माह में दो संक्रांति पड़ती हों उसे “क्षयमास” कहते हैं। सौर मास तथा चांद्र मास का सामंजस्य बिठाने के लिए हर तीसरे वर्ष अधिकमास हो जाता है। क्षयमास कभी-कभी ही पड़ता है।
योग:- योग शब्द का अर्थ – जोड़ना होता है। पंचांग के पांच अंग में से एक अंग योग है जिसकी गणना चंद्र और सूर्य के भोगांश कोम जोड़कर और जो जोड़ आता है उसे 13 डिग्री 20 मिनट से भाग देना होता है और गणना आती है उस नंबर का योग वर्तमान में होता है। मान लीजिए भाग देने पर भागफल 22.24 आता है तो इसका अर्थ हुआ कि 22 योग बीत चुके हैं अब 23वाँ योग “शुभ” चल रहा है।
योग अपने नाम के अनुसार शुभ तथा अशुभ होते हैं। योग 27 होते हैं और उनके नाम भी क्रम से होते हैं – विषकुंभ, प्रीती, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगण्ड, सुकर्मा, धृति, शूल, गण्ड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षना, वज्र, सिद्धि, व्यतीपात, वरीयान, परिधि, शिव, सिद्धा, साध्य, शुभ, शुक्ल, ब्रह्म, इन्द्र, वैधृति।
करण:- करण पंचांग का ही एक अंग है, योग की तरह इसकी गणना भी सूर्य तथा चंद्र के भोगांश पर आधारित है। इसकी गणना में सूर्य तथा चंद्र के भोगाँश के अन्तर को 6 से भाग किया जाता है। सरल शब्दों में कहें तो सूर्य तथा चन्द्र के 6 डिग्री के अन्तर से एक करन बनता है। ये तिथि का आधा होता है और इस तरह से एक दिन में दो करन होते हैं। 30 तिथियों में 60 करन होते हैं।
करणों के नाम:- 11 प्रकार के करण होते हैं जिसमें किन्तुघ्न गणना करने पर पहले 7 करणों की पुनरावृत्ति 8 बार होती है और अन्त में शेष तीन करण आते हैं इसका अर्थ है कि अन्त के चार करण स्थिर है। गणना तो किन्तुघ्न से शुरु होती है लेकिन इसकी पुनरावृत्ति नहीं होती, इसके बाद के 7 करणों की पुनरावृत्ति 8 बार होती है। शकुनि, चतुष्पद, नाग और किन्तुघ्न ये चार स्थिर करण हैं और महीने में एक बार ही आते हैं। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज, विष्टि चर करण हैं। इसमें विष्टि (भद्रा) को छोड़ बाकी सभी शुभ हैं।
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि के पहले भाग में किंतुघ्न करण होगा। कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के दूसरे भाग में शकुनि करण होगा और अमावस्या तिथि के दिन पहले भाग में चतुष्पद तथा दूसरे भाग में नाग करण होगा।
तिथि: – सूर्य तथा चंद्र के भोगाँशों का जो अन्तर बढ़ता जाता है उसी अंतर से तिथि का निर्माण होता है और 12 अंश के अंतर पर एक दूसरी तिथि बन जाती है। चंद्र का भोगाँश और सूर्य के भोगाँश के अंतर को 12 से भाग देकर जो गणना निकलकर आती है वो तिथि बनती है। जैसे ही चंद्र, सूर्य से आगे बढ़ता है वैसे ही एक तिथि का बनना शुरु हो जाता है।
चंद्रमास में दो पक्ष होते हैं – कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष। कृष्ण पक्ष में चंद्रमा की कलाएँ घटना आरंभ होती हैं और अंत में चंद्र जब दिखाई ही नहीं देता तब अमावस्या होती है। अमावस्या के बाद चंद्रमा की कलाएं बढ़ना शुरु करती हैं और इसे शुक्ल पक्ष कहते हैं और बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा को पूरा चाँद दिखाई देता है।
चंद्र और सूर्य के भोगाँश में जब तक 180 अंश का अंतर रहता है तब तक शुक्ल पक्ष रहता है और जब यह अंतर 180 से ज्यादा और 360 से कम होता है तब कृष्ण पक्ष कहलाता है। शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष की तिथियों के नाम एक जैसे ही रहते हैं, अंतर ये है कि तिथियों के आगे कृष्ण अथवा शुक्ल लगा दिया जाता है जैसे कृष्ण सप्तमी अथवा शुक्ल सप्तमी आदि। दूसरा अंतर ये हो जाता है कि शुक्ल पक्ष की 15वीं तिथि को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष की 15वीं तिथि को अमावस्या कहते हैं। कहीं-कहीं 15वीं तिथि को 30वीं भी लिखा जाता है।
तिथियों के नाम:-
- प्रतिपदा शुक्ल/कृष्ण
- द्वितीया शुक्ल/कृष्ण
- तृतीया शुक्ल/कृष्ण
- चतुर्थी शुक्ल/कृष्ण
- पंचमी शुक्ल/कृष्ण
- षष्ठी शुक्ल/कृष्ण
- सप्तमी शुक्ल/कृष्ण
- अष्टमी शुक्ल/कृष्ण
- नवमी शुक्ल/कृष्ण
- दशमी शुक्ल/कृष्ण
- एकादशी शुक्ल/कृष्ण
- द्वादशी शुक्ल/कृष्ण
- त्रयोदशी शुक्ल/कृष्ण
- चतुर्दशी शुक्ल/कृष्ण
- पूर्णिमा/अमावस्या
तिथियों में वर्जित कार्य: – षष्ठी तिथि को तेल का सेवन निषिद्ध माना गया है, अष्टमी को मांस, चतुर्दशी को क्षौर कर्म और अमावस्या तिथि को स्त्री का संसर्ग निषिद्ध माना गया है। सप्तमी, नवमी और अमावस्या को आंवले के फल से स्नान नहीं करना चाहिए। द्वितीया, दशमी और त्रयोदशी को उबटन लगाना चाहिए।
भद्रा तिथि:- कृष्ण पक्ष की तृतीया, सप्तमी तथा चतुर्दशी तिथि के पूर्वार्द्ध(पहले भाग) में भद्रा तिथि का वास रहता है और कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि के उत्तरार्द्ध में भी भद्रा तिथि रहती है।
नक्षत्र संज्ञा:- पुनर्वसु, मृगशिरा, आर्द्रा, ज्येष्ठा, अनुराधा, हस्त, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा और मूल ये नौ नक्षत्र सूर्य से दक्षिणचारी हैं। कृतिका, रोहिणी, पुष्य, चित्रा, अश्लेषा, रेवती, शतभिषा, धनिष्ठा और श्रवण ये सूर्य से मध्यमाचारी नक्षत्र हैं। अश्विनी, भरणी, स्वाती, विशाखा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, मघा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद ये नौ नक्षत्र सूर्य से उत्तराचारी हैं।
चरादि नक्षत्र: – उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद तथा रोहिणी ये चार नक्षत्र स्थिर अथवा “ध्रुव” नाम वाले हैं। इन नक्षत्रों में स्थिर कार्य करने चाहिए। जिन कार्यों में स्थिरता अच्छी हो जैसे – गृह प्रवेश, बीज बोना, व्यापार शुरु करना, मन्दिर बनवाना आदि स्थिर कार्य।
स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा ये पाँच नक्षत्र “चर” अथवा “चल” नक्षत्र कहलाते हैं। जैसा कि नाम से स्पष्ट है इनमें सवारी करना, यात्रा करना, मंत्र सिद्धि, हल जोतना आदि शुभ काम होता है।
पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी तथा मघा ये पाँच नक्षत्र “उग्र” संज्ञक होते हैं। इन नक्षत्रों में उग्र कार्य करना श्रेष्ठ माना गया है जैसे तांत्रिक प्रयोग करना, मुकदमा शुरु करना, शत्रु पर आक्रमण आदि कार्य।
विशाखा तथा कृत्तिका ये मिश्र अथवा साधारण नक्षत्र कहे जाते हैं। इनमें अग्निहोत्र, साँड छोड़ना तथा उग्र नक्षत्रों के कार्य भी किए जा सकते हैं।
अश्विनी, पुष्य, हस्त, अभिजित ये चार नक्षत्र “क्षिप्र” अथवा “लघु” कहे जाते हैं। इनमें स्त्री रति, खरीद-बेच, मंगल कार्य, यात्रादि, विद्यारंभ तथा चर संज्ञक नक्षत्रों के कार्य किए जाते हैं।
मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा तथा रेवती ये चार नक्षत्र मृदु अथवा मैत्र कहे जाते हैं। इनमें सभी कोमल अथवा मित्रतापूर्ण कार्य करना श्रेष्ठ माना जाता है।
तीक्ष्ण अथवा दारुण नक्षत्र में मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा, आश्लेषा चार नक्षत्र आते हैं। इनमें उग्र कार्य, फूट डालना, पशुओं को ट्रेनिंग देना, प्रहार कार्य आदि काम उत्तम माने जाते हैं।
अधोमुख, ऊर्ध्वमुख तथा तिर्यड़्मुख नक्षत्र: – मूल, आश्लेषा, मिश्र नक्षत्र, उग्र नक्षत्र ये 9 नक्षत्र मिलकर “अधोमुख नक्षत्र” कहलाते हैं। इन नक्षत्रों में अधोगमन वाले कार्य – बावड़ी, कुंआ खुदवाना, बोरिंग कराना, गुफा या सुरंग बनवाना, सड़कों पर भूमिगत पारपथ बनवाना, बेसमेंट बनवाना आदि का करने चाहिए। जिन कामों में ऊपर से नीचे की ओर गति हो वे सब कार्य ठीक हैं। जहाज की लैंडिंग, पहाड़ से उतरना आदि इसी में आते हैं।
आर्द्रा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, तीनों उत्तरा, रोहिणी ये 9 नक्षत्र “ऊर्ध्वमुख नक्षत्र” कहलाते हैं। इन नक्षत्रों में सब उन्नति के कार्य, आगे बढ़ने के कार्य तथा ऊपर चढ़ने के कार्य करने चाहिए। नौकरी शुरु करना, बड़े पद पर बैठना, शपथ ग्रहण करना, राजतिलक करना, चढ़ाई आदि काम इसमें आते हैं।
मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, स्वाति, पुनर्वसु, ज्येष्ठा, अश्विनी ये “तिर्यड़्मुख नक्षत्र” हैं। इन नक्षत्रों में पशुओं को ट्रेनिंग देना, रथ या नाव चलाना, जलयात्रा, विमान चलाना, हल जोतना, यातायात, मशीनरी चालू करना आदि कार्य इसमें आते हैं।